Tuesday, 17 September 2013

रात भी , चाँद भी , हम - दोनों भी !!!

कुछ यूँ ही,  छुप  कर , 
उन  झरोखों से , तुम हमें देखा किए । 
तुम बिन हम कम जिए , 
तो तुम भी तो तड़पा किए …. 

तसव्वुर की चाहत , 
कुछ यूँ दबी रह गयी । 
कोई काफिया ग़ज़ल में ,
मुक़म्मल ना  हो पाया जैसे  …. 

रात भी , चाँद भी , 
हम - दोनों भी ,
चलते रहे , जलते रहे  …. 
अधूरे ही  !!!

हवाओं के ये हसीन , 
सर्द झोंके … 
जाएं यादों के उस जहाँ में , 
मुझे ले  के  … 

जिस मोड़ पे ,
 अधूरी सी , एक कहानी है  …. 
वो जो इनकार की हक़ीक़त  , 
तुम्हें बतानी है  !!!! 

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