कुछ यूँ ही, छुप कर ,
उन झरोखों से , तुम हमें देखा किए ।
तुम बिन हम कम जिए ,
तो तुम भी तो तड़पा किए ….
तसव्वुर की चाहत ,
कुछ यूँ दबी रह गयी ।
कोई काफिया ग़ज़ल में ,
मुक़म्मल ना हो पाया जैसे ….
मुक़म्मल ना हो पाया जैसे ….
रात भी , चाँद भी ,
हम - दोनों भी ,
चलते रहे , जलते रहे ….
अधूरे ही !!!
हवाओं के ये हसीन ,
सर्द झोंके …
जाएं यादों के उस जहाँ में ,
मुझे ले के …
जिस मोड़ पे ,
अधूरी सी , एक कहानी है ….
वो जो इनकार की हक़ीक़त ,
तुम्हें बतानी है !!!!
Deeper than ever.. :-)
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